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बस ये आखिरी रात
जो बनी बर्फ की दीवार
सांज और सवेरे की
कल सुबह होगा मिलन
नाचेगा मेरा मन
पाकर उनका साथ
बस गुजर जाये
ये ऊजियारी आखिरी रात।
बीत गये दिन इतने
गुजर गयीं हर रात
बिन करे बात
बिन उसके साथ
पर कैसे अब गुजरे
ये ऊजियारी आखिरी रात ?
कहते हैं पुराने कवि
चाँद में दिखती है
अपने प्रियतम की छवि
तो बस मैं भी देखता रहूँ
बाँधे निगाहें चाँद के साथ
बस कैसे भी गुजर जाये
ये ऊजियारी आखिरी रात।
मैं गिनता रहूँ तारों को
या गिनूँ गिरती उल्काओ को
या ढूँढ़ता रहूँ
लहराता आँचल उसका
पेड़ों की हिलती साखों में
या बना दूँ आकृति
उड़ते हुए बादलों में
या सजाऊँ सपने अपने
अपनी खुली आँखों से
या निहारुँ उसकी नीली आँखों को
करके बंद अपनी आँखों से
या फिर थाम लूँ उसका हाथ
बस कैसे भी गुजर जाये
ये ऊजियारी आखिरी रात।
:- गोपाल सिंह बंधी
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